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कविता

बिके हुए खेत की मेड़ पर बैठे एक किसान का शोक गीत

प्रदीप जिलवाने


कि सब बातें तय हो गई
कि सौदा-चिट्ठी हो गई
कि खेत नहीं, यह मौके की जमीन थी

कि मैंने तो लगाया था कपास खरीफ में,
कि मैंने रबी में बोया था गेहूँ
कि लहलहाती फसलें नहीं, कौन दबा धन दिखा ?

कि आखिरशः मैं टूट गया किसी तरह
कि धन से लकदक रहूँगा कुछ महीने साल
कि न लौटकर आऊँगा कभी इस तरफ भी
कि न हल, न बक्खर, न छकड़ा होगा

कि भाई जैसे बैल भी अब बिक जाएँगे
कि मेरे घर भी अनाज अब आएगा बाजार से
कि खेत अब तब्दील हो जाएगा कंकरीट में

कि क्या कभी भूल पाऊँगा इस मिट्टी की गंध
कि मेरे पूर्वजों का पसीना है इसमें घुला-मिला

 


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